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बीए सेमेस्टर-3 राजनीति विज्ञान

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2650
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-3 राजनीति विज्ञान

प्रश्न- "वर्तमान भारतीय राजनीति में धर्म, जाति तथा आरक्षण प्रधान कारक बन गये हैं।" इस पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कीजिए।

उत्तर -

भारतीय राजनीति में जाति कारक का प्रभाव

जाति-व्यवस्था भारतीय समाज का परम्परागत पक्ष है। स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् संविधान और राजनीतिक संस्थाओं के निर्माण से आधुनिक प्रभावों ने भारतीय समाज में धीरे-धीरे प्रवेश करना आरम्भ कर दिया। आधुनिक प्रभावों के फलस्वरूप वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचन प्रारम्भ हुए और जातिगत संस्थाएँ यकायक महत्वपूर्ण बन गयीं क्योंकि उनके पास भारी संख्या में मत थे और लोकतन्त्र में सत्ता स्थापित हेतु इन मतों का मूल्य था। जिन्हें सत्ता की आकांक्षा थी उन्हें सामान्य जनता के पास पहुँचने के लिए सम्पर्क सूत्र की भी आवश्यकता थी। सामान्य जनता को अपने पक्ष में मिलाने के लिए यह भी जरूरी था कि उनसे उस भाषा में बात की जाये तो उनकी समझ में आ सके। जाति-व्यवस्था इस बात को प्रकट करती थी। जयप्रकाश नारायण ने एक बार कहा था कि 'जाति भारत में अत्यधिक महत्वपूर्ण दल है। ' हेरल्ड गोल्ड के शब्दों में, 'राजनीति का आधार होने के बजाय जाति उसको प्रभावित करने वाला एक तत्व है।' इस पृष्ठभूमि में जाति की भूमिका राजनीति में अधिकाधिक महत्वपूर्ण होती गयी। भारतीय

राजनीति में 'जाति' की भूमिका का अध्ययन निम्न शीर्षकों में किया जा सकता है—

(1) निर्णय प्रक्रिया में जाति (Caste in Decision-making Process ) - भारत में जातियाँ संगठित होकर राजनीतिक और प्रशासनिक निर्णय की प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं। उदाहरणार्थ, संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण के प्रावधान रखे गये हैं जिनके कारण थे जातियाँ संगठित होकर सरकार पर दबाव डालती हैं कि इन सुविधाओं को और अधिक वर्षों के लिए अर्थात् जनवरी 2010 तक के लिए बढ़ा दिया जाये। अन्य जातियाँ चाहती हैं कि आरक्षण समाप्त किया जाये अथवा इसका आधार सामाजिक-आर्थिक स्थिति हो अथवा उन्हें आरक्षित सूची में शामिल किया जाये ताकि वे इसके लाभ से वंचित न रह जायें।

(2) राजनीतिक दलों में जातिगत आधार पर निर्णय (Caste-oriented Decisions at the level of Political Parties) - भारत में सभी राजनीतिक दल अपने प्रत्याशियों का चयन करते समय जातिगत आधार पर निर्णय लेते हैं। प्रत्येक दल किसी भी चुनाव क्षेत्र में प्रत्याशी मनोनीत करते समय जातिगत गणित का अवश्य विश्लेषण करते हैं। 1962 में गुजरात के चुनाव में स्वतन्त्र पार्टी की सफलता का राज उसका क्षत्रिय जाति के समर्थन में छिपा हुआ था। हरिजन-मुसलमान- ब्राह्मण शक्तिपुंज बनाकर ही 1971 का आम चुनाव कांग्रेस ने जीता था। 1977 में जनता पार्टी का विजय का कारण उसे मुसलमानों और हरिजनों के साथ उच्च जातियों का प्राप्त समर्थन था। जनवरी 1980 के सप्तम लोकसभा चुनावों में कांग्रेस (इन्दिरा) की विजय का कारण था कि श्रीमती गांधी हरिजनों, ब्राह्मण और मुसलमानों का जातीय समर्थन जुटाने में सफल हो गयीं। नवम्बर 1989 के लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश और बिहार में जनता दल की अपूर्व विजय का एक कारण जाट- राजपूत समर्थन था। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी का उदय और आधार कतिपय दलित जातियों के समर्थन पर निर्भर है। कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक दलों में जातीय आधार पर अनेक गुट पाये जाते हैं जिनमें प्रतिस्पर्द्धा की भावना विद्यमान रहती है। "लोगों की जाति-पांति के प्रति निष्ठा को राजनीतिज्ञों ने थोक वोट के रूप में देखा: सत्ता में आने के लिए सदनों में बहुमत प्राप्त करने के उद्देश्य से राजनीतिज्ञों ने जाति-पांति के आधार पर उम्मीदवारों के चयन और सत्ता में आने पर उन्हें मन्त्रिपद एवं अन्य लाभ के पद उपलब्ध कराये।”

(3) जातिगत आधार पर मतदान व्यवहार (Caste-oriented Voting Behaviour) भारत में चुनाव अभियान में जातिवाद को साधन के रूप में अपनाया जाता है और प्रत्याशी जिस निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव लड़ रहा है उस निर्वाचन क्षेत्र में जातिवाद की भावना को प्रायः उकसाया जाता है ताकि सम्बन्धित लघु प्रश्नप्रत्याशी की जाति के मतदाताओं का पूर्ण समर्थन प्राप्त किया जा सके। जनवरी 1980 के चुनावों में उत्तर प्रदेश और कुछ बिहार के हिस्सों में लोकदल की सफलता पिछड़ी जातियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का प्रतीक है। उत्तर प्रदेश के चुनावों में चरणसिंह की सफलता सदैव ही जाट जाति के मतों की एकजुटता पर निर्भर रही है। केरल के चुनावों में साम्यवादी और मार्क्सवादी दलों ने भी वोट जुटाने के लिए सदैव जाति का सहारा लिया है।

"मंडल विवाद के कारण 1990-91 में समाज जाति के आधार पर दो भागों में बंट गया और गाँवों एवं शहरों में जातियुद्ध-सा छिड़ गया। राजनीतिक पार्टियाँ सिर्फ एक चुनावी मुद्दे पर बात करने लग- पिछड़े बनाम अगड़े का। "

भाजपा के अयोध्या आन्दोलन की प्रतिक्रिया में देश के दो बड़े राज्यों— उत्तर प्रदेश और बिहार में- जहाँ लोकसभा की 139 सीटें हैं, एक अनूठे सामाजिक, राजनीतिक गठजोड़ का जन्म हुआ जिनके जनक क्रमशः मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव थे। मुसलमानों और यादवों को मिलाकर बने इस 'माइ' गठजोड़ से दोनों राज्यों के मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा एकजुट हो गया।

(4) मन्त्रिमंडलों के निर्माण में जातिगत प्रतिनिधित्व (Caste Representation in the Ministry Making) - राजनीतिक जीवन में जातीयता का सिद्धान्त इतना गहरा धंस गया है कि राज्यों के मन्त्रिमण्डल में प्रत्येक प्रमुख जाति का मन्त्री होना चाहिए। यह सिद्धान्त प्रान्तों की राजधानियों से ग्राम पंचायतों तक स्वीकृत हो गया कि प्रत्येक स्तर पर प्रधान जाति को प्रतिनिधित्व मिलना ही चाहिए। यहाँ तक कि केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में भी हरिजनों, जनजातियों, सिक्खों, मुसलमानों, ब्राह्मणों, जाटों, राजपूतों और कायस्थों को किसी-न-किसी रूप में स्थान अवश्य दिया जाता है।

(5) जातिगत दबाव समूह (Caste as Pressure Groups ) - मेयर के अनुसार, “जातीय संगठन राजनीतिक महत्व के दबाव समूह के रूप में प्रवृत्त हैं।" जातिगत दबाव समूह अपने न्यस्त स्वार्थों एवं हितों की पूर्ति के लिए नीति-निर्माताओं को जिस ढंग से प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं उससे तो उनकी तुलना यूरोप और अमरीका में पाये जाने वाले ऐच्छिक समुदायों से की जा सकती है।

अनेक जातीय संगठन और समुदाय जैसे तमिलनाडु में नाडार जाति संघ, गुजरात में क्षत्रिय महासंघ, बिहार में कायस्थ सभा आदि राजनीतिक मामलों में रुचि लेने लगते हैं और अपने-अपने संगठित बल के आधार पर राजनीतिक सौदेबाजी भी करते हैं। यद्यपि देश की सभी प्रमुख जातियाँ को इस प्रकार पूर्णतया संगठित नहीं किया जा सकता है। मगर जो जातियाँ इस प्रकार संगठित नहीं हो सकीं, वे राजनीतिक सौदेबाजी में सफल नहीं रहीं और उनके सदस्यों को अपनी आवाज उठाने के लिए उपद्रव और तोड़-फोड़ का सहारा लेना पड़ा।

(6) जाति एवं प्रशासन (Caste and Administration ) – लोकसभा और विधान सभाओं के लिए जातिगत आरक्षण की व्यवस्था प्रचलित है, केन्द्र एवं राज्यों की सरकारी नौकरियों एवं पदोन्नति के लिए जातिगत आरक्षण का प्रावधान है। मेडिकल एवं इन्जीनियरिंग कॉलेजों में विद्यार्थियों की भर्ती हेतु आरक्षण के प्रावधान मौजूद हैं। चरणसिंह सरकार ने तो अल्पकाल में एक अध्यादेश के माध्यम से पिछड़ी जातियों के लिए केन्द्रीय सरकार की सेवा में आरक्षण व्यवस्था घोषित करने की मंशा प्रकट की थी और इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को भी ताक में रख दिया था। यदि यह अध्यादेश लागू हो जाता तो मध्यम जातियों; जैसे- अहीर यादव, कुर्मी आदि को भी आरक्षण के अवसर मिल जाते। राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने अगस्त 1990 में मंडल रिपोर्ट लागू कर नौकरियों में पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया। ऐसा भी माना जाता है कि भारत में स्थानीय स्तर के प्रशासनिक अधिकारी निर्णय लेते समय अथवा निर्णयों के क्रियान्वयन में प्रधान और प्रतिष्ठित अथवा संगठित जातियों के नेताओं से प्रभावित हो जाते हैं।

 भारतीय राजनीति में धर्म कारक का प्रभाव

वर्तमान समय में राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद जैसे धार्मिक विवाद का जिस प्रकार राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया गया है वह सर्वविदित है। स्वाधीनता से शुरू हुई चुनावी राजनीति में मुख्य रूप से साम्प्रदायिकता को और बढ़ावा दिया है। धर्म के आधार पर राजनैतिक दलों का निर्माण होता है। चुनावों में समर्थन तथा मत प्राप्त करने के लिए धर्म का सहारा लिया जाता है। जनता से की जाने वाली अपीलों में उन्हें दिये गये आश्वासनों, निर्वाचन में प्रत्याशियों के चयन तथा मतदान व्यवहार में धर्म का राजनीतिक स्वरूप देखने को मिलता है। भारत में धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना के बाद भी धर्म एवं सम्प्रदाय भारतीय राजनीति के स्वरूप को निम्नलिखित ढंग से प्रभावित करते हैं।

(1) धर्म एवं राजनैतिक दल - भारत में विभिन्न राजनीतिक दलों तथा दबाव समूहों के गठन एवं कार्यकरण की आधारशिला धर्म एवं साम्प्रदायिकता रही है। भारत में मुस्लिम लीग तथा हिन्दू महासभा अपनी प्रेरणा एवं समर्थन क्रमशः मुस्लिम धर्म तथा हिन्दू धर्म से प्राप्त करते हैं। बी. जे. पी. तथा आर. एस. एस. भी अपने प्रेरणा हिन्दुत्व से ही प्राप्त करती है। शिरोमणि अकाली दल के निर्माण में भी सिखों की धार्मिक एवं साम्प्रदायिक भावनाएँ महत्वपूर्ण रही हैं। साम्प्रदायिकता पर आधारित ऐसे राजनीतिक दल धर्म को राजनीति में प्रधानता देते हैं। जनता दल, कांग्रेस, विभिन्न साम्यवादी दल यद्यपि सैद्धान्तिक रूप से पूर्णत: धर्म-निरपेक्ष कहे जा सकते हैं, परन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि उन्हें भी राजनीतिक तथ्यों एवं प्रभावों के साथ समझौता करना पड़ता है।

राजनीतिक दलों के अतिरिक्त कुछ दबाव समूह भी ऐसे हैं जो विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों से प्रेरणा एवं समर्थन प्राप्त करते हैं। ऐसे दबाव समूहों में जमाते उल्मा, आर. एस. एस., विश्व हिन्दू परिषद्, बजरंग दल, बावरी मस्जिद कार्य समिति आदि का नाम लिया जा सकता है। 

(2) धर्म और निर्वाचन - जैसा कि संकेत किया गया है स्वाधीनता के बाद चुनावों की राजनीति ने धर्म एवं सम्प्रदाय की राजनीतिक भूमिका को बढ़ाया है। भारत में चुनाव के समय प्रत्याशियों के चयन, राज्य स्तर के चुनाव तथा स्थानीय निकायों के चुनावों के समय देखने को मिलता है। वोट बटोरने के लिए मठाधीश, इमामों तथा पादरियों के द्वारा अपने पक्ष में मत दिलवाये जाते हैं। शंकराचार्यों तथा विशेष रूप से दिल्ली जामा मस्जिद के शाही इमाम का अपने-अपने सम्प्रदायों में काफी महत्व प्राप्त होता है। 1989 तथा 1991 संसदीय आम निर्वाचनों के समय जिस प्रकार धर्म के आधार पर भारतीय जनता पार्टी ने हिन्दू धर्म के अनुयायियों में समर्थन को प्राप्त करने का प्रयास किया और अपने प्रयास में जैसी सफलता पायी उससे यह स्पष्ट है कि कितने बड़े पैमाने पर वोट के लिए धर्म एवं साम्प्रदायिकता का सहारा लिया जा सकता है।

(3) धर्म एवं मतदान व्यवहार - धर्म एवं साम्प्रदायिकता जैसे तथ्य भारतीय मतदाताओं में मतदान व्यवहार को भी प्रभावित करते हैं। अल्पसंख्यक समुदायों मुसलमानों, सिखों एवं ईसाइयों के साथ हमेशा ऐसी बात रही है, परन्तु हाल के वर्षों में और विशेष रूप से 1989 तथा 1991 के संसदीय आम निर्वाचन तथा 1990 के फरवरी में राजस्थान, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश तथा महाराष्ट्र में हिन्दूओं में मतदान व्यवहार को प्रभावित करने में धर्म एवं साम्प्रदायिकता एवं महत्वपूर्ण तथ्य रहा, परन्तु यह भी उल्लेखनीय है कि 6 दिसम्बर, 1992 को मस्जिद ढहाये जाने के बाद बी. जे. पी. शासित चार राज्यों की सरकार को बर्खास्त किया गया और पुन: उपचुनाव में बी. जे. पी. का न आना धर्म का मतदान व्यवहार पर असर कम होने लगा।

(4) धर्म एवं राजनीतिक पुरस्कारों का वितरण - आम निर्वाचन के पश्चात् मन्त्रिमण्डल के राजनीतिक पदों के वितरण धार्मिक एवं साम्प्रदायिक विचारों से प्रभावित होते हैं। केन्द्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री आवश्यक रूप से कुछ मुसलमानों, सिखों तथा ईसाइयों को मन्त्रिमण्डल में शामिल करता है। उसी प्रकार राज्य स्तर पर भी विभिन्न धार्मिक समुदाय को मन्त्रिमण्डल में प्रतिनिधित्व दिया जाता है। इसके अतिरिक्त व्यवस्थापिका एवं प्रशासन में भी पदों के बँटवारे में धार्मिक बातों का ध्यान रखा जाता है।

(5) सरकारी नीति एवं कार्य तथा धर्म - सरकार की बहुत सारी नीतियाँ एवं कार्य भी धार्मिक एवं साम्प्रदायिक विचारों से प्रभावित होते हैं। उदाहरण के लिए भारत सरकार ने परिवार नियोजन कार्यक्रम को सफल बनाने में दिलचस्पी दिखाई है। हिन्दू महासभा, बी. जे. पी. वी. एच. पी. तथा शिवसेना आदि ने सरकार पर यह आरोप लगाया कि सरकार केवल हिन्दुओं की संख्या घटाने में ही दिलचस्पी रखती है। इसलिए मुसलमानों के सम्बन्ध में इस नीति को प्रभावशाली ढंग से लागू नहीं किया गया है।

भारतीय राजनीति में धर्म की भूमिका का अब तक की चर्चा के पश्चात् यह स्पष्ट है कि धर्म एवं साम्प्रदायिकता राजनीति का एक निर्धारक तत्व है, परन्तु यह उल्लेखनीय है कि धर्म भारतीय राजनीति को प्रभावित करने वाला एक नियमित तत्व नहीं रहा है। यही कारण है कि यद्यपि धर्म एवं साम्प्रदायकिता के नाम पर राजनीतिक दलों के गठन, प्रत्याशियों के चयन, मतों का भाग तथा मतदाताओं द्वारा मतदान आदि के उदाहरण पाये जाते हैं, परन्तु धर्म कभी-कभी ही चुनावों को प्रभावित कर पाता है। यदि भारतीय राजनीति मुख्य रूप से धर्म एवं साम्प्रदायिकता से ही प्रभावित होती, तो निश्चित रूप से बी. जे. पी. सत्ता में रहती, कांग्रेस पार्टी, जनता दल तथा साम्यवादी दल को कोई प्रभाव नहीं होता, परन्तु भारत में ऐसा नहीं है। आधुनिकीकरण, औद्योगीकरण, शहरीकरण के विकास तथा शिक्षा के प्रसार ने इसकी महत्ता को निश्चित रूप से कम कर दिया है। यद्यपि राम जन्मभूमि तथा बाबरी मस्जिद के मुद्दों के चलते साम्प्रदायिकता का बोलबाला भारतीय राजनीति की यह एक अल्पकालिक अवस्था या चरण है और विवाद के समाधान के लिए धर्म एवं साम्प्रदायिकता की भूमिका फिर से कम हो जायेगी।

 

वर्तमान भारतीय राजनीति में आरक्षण कारक का प्रभाव
(Prime factor of Reservation in Present Indian Politics)

आरक्षण वर्तमान राजनीति का एक प्रधान कारक बन गया है। यह आरक्षण जाति आधारित होने के कारण और अधिक राजनीति, समाज और चुनाव प्रणाली को प्रभावित करता है। भारतीय संविधान में आरक्षण की व्यवस्था समाज के पिछड़े तथा कमजोर वर्गों को समान सामाजिक स्तर पर लाने का प्रयास था किन्तु वर्तमान भारतीय राजनीति में आरक्षण की व्यवस्था को राजनीतिक लाभ के लिए बनाए रखा गया है जबकि संविधान लागू होने के 20 वर्षों के लिए ही यह व्यवस्था अस्थाई रूप से लागू की गयी थी। आरक्षण का लाभ जो सभी जातियों को मिलना चाहिए था वह नहीं मिल पा रहा है। आरक्षण जातिगत व्यवस्था पर आधारित होने के कारण एक ही जाति के कुछ धनी लोगों को तो इसका लाभ मिल रहा है। पर गरीब को अपने हिस्से का लाभ नहीं मिल पा रहा है। आरक्षण को ऐसा जातिगत आधार इसलिए दिया गया, क्योंकि उसका जातिगत वोट बैंक बना रहे। आरक्षण की व्यवस्था ने वर्तमान भारतीय राजनीति पर निम्न प्रकार से प्रभाव डाला है -

(1) जनमत निर्माण में आरक्षण का प्रभाव - भारत में आरक्षण की व्यवस्था जाति के आधार पर है अतः सभी आरक्षण मे सम्मिलित जातियाँ संगठित होकर राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक निर्णय की प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं संविधान में अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में तीन आरक्षण की श्रेणियाँ है इन वर्गों में सम्मिलित सभी जातियाँ चुनावों में मतदान आरक्षण की व्यवस्था के आधार पर करती है तथा उसी दल को अपना समर्थन देती हैं जो आरक्षण की बात करता है जैसाकि बिहार चुनाव में भाजपा के साथ हुआ जब आर. एस. एस. प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण पर समीक्षा करने की बात की, तो सभी विरोधी पार्टियों ने इसे यह कह कर हवा दी कि R. S.S. से सीधा जुड़ाव रखने वाली भाजपा अगर आरक्षण का समर्थन करती है तो सवर्ण वर्ग का वोट खतरे में पड़ जायेगा और विरोध करती है तो दलित पिछड़ा वर्ग के लोग कभी करीब नहीं आयेगा। इसी कारण बिहार में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था।

(2) राजनीतिक हथियार के रूप में आरक्षण के मुद्दों का प्रयोग - सभी राजनीतिक पार्टियाँ आरक्षण को राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग करती हैं यदि कोई एक पार्टी इसका विरोध करती है तो. अन्य पार्टियाँ उस पर आरक्षण विरोधी होने का आरोप लगने लगती हैं और उसे आरक्षण विरोधी घोषित कर देती हैं ताकि उस पार्टी को चुनावी होनि हो और उन्हें लाभ हो। जैसा कि 190-92 के समय में हुआ था जब वी पी सिंह ने चुनावी लाभ के लिए मण्डल कमीशन की सिफारिशों पर अन्य पिछड़ा वर्ग को 27% आरक्षण देने के लिए एक विधेयक लाया तथा उसे लागू किया। मण्डल कमीशन लागू होते ही देश भर में आरक्षण को लेकर आग लग गई। अरक्षण के खिलाफ लोग सड़कों पर उत्तर आये देश भर में कई हिंसक झड़प भी हुए। 19 सितंबर 1990 को दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र एस. एस. चौहान ने आरक्षण के विरोध मे आत्मदाह कर लिया, वहीं 24 सितंबर 1990 को पटना में आरक्षण को विरोधियों और पुलिस के बीच झड़प हुई जिसमें पुलिस फायरिंग में चार छात्रों की मौत हो गई। राजनीति दलों ने इस मुद्दे पर खूब सियासी रोटियाँ भी सेकीं। आरक्षण का यह मुद्रा हर चुनाव में उठता रहा है और इसकी आड़ में राजनीतिक दल अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं।

(3) आरक्षण आन्दोलन और राजनीतिक दल - भारत में आरक्षण का मुद्दा एक राजनीतिक मुद्दा बन चुका है और सभी राजनीतिक दल इसे चुनावी लाभ के लिए बनाए रखना चाहते हैं इसलिए कई दल आरक्षण की राजनीतिक को हवा देते रहते है। इसके अतिरिक्त भारत में आरक्षण का लाभ लेने के लिए कई जातियाँ आन्दोलन पर उतर आती है और यह आन्दोलन हिंसक हो जाता है जैसाकि हरियाणा का जाट आन्दोलन राजस्थान का गुर्जर आन्दोलन और गुजरात का पाटीदार आन्दोलन प्रमुख है। हरियाणा का जाट ओबीसी कोटे में आरक्षण की मांग को लेकर आन्दोलन पर थे, यह आन्दोलन तब शुरू हुआ जब हरियाणा एवं पंजाब हाइकोर्ट ने जाटों कों दिए जा रहे विशेष आरक्षण को समाप्त कर दिया था और कोर्ट के इस निर्णय ने आग में घी डालने का काम किया क्योंकि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्रीय अधिसूची में यूपीए सरकार द्वारा जाटों को ओबीसी में आरक्षण देने के आदेश को निरस्त कर दिया था। गुजरात में आरक्षण को लेकर सम्पन्न पार्टीदार समुदाय हार्दिक पटेल के नेतृत्व में आन्दोलन पर उतर आये। हार्दिक ने गुजरात में पटेलों को अलग से आरक्षण देने की मांग को लेकर पूरे पटेल समुदाय को लामबंद कर दिया था। हार्दिक और अन्य पटेल नेताओं की टूक मांग थी कि या तो उन्हें भी ओबीसी की तरह सरकारी नौकरियों मे आरक्षण दिया जाए या अन्य जातियों को ओ. बी. सी. से बाहर किया जाए आरक्षण की मांग को लेकर किस तरह पूरे देश मे हलचल पैदा की जा सकती है यह झलक राजस्थान के गुर्जर आन्दोलन में मिलती है। जिन्होंने एस. टी. कोटे में आरक्षण की मांग को लेकर राजस्थान में रेल की पटरियों पर कब्जा जमा लिया था। राजें राजवाड़े वाले राजस्थान में गुर्जर आर्थिक और सामाजिक रूप से काफी पिछड़े हुए हैं। यूं तो राजस्थान में गुर्जर ओबीसी में आते हैं। गुर्जर आन्दोलन 2006 में आर्मी रिटायर्ड कर्नल करोड़ी सिंह बैसला के नेतृत्व में प्रारम्भ हुआ। इन सभी आन्दोलनों का राजनीतिक पार्टियों ने चुनावी लाभ उठाया तथा एक-दूसरे पर आरोप लगाते रहे।

(4) समाज एवं सामाजिक व्यवस्था का विभाजन - आरक्षण की व्यवस्था के कारण समाज दो वर्गों में विभाजित हो गया है आरक्षण समर्थक और आरक्षण विरोधी। आरक्षण समर्थक जातियाँ और राजनीतिक दल आरक्षण लाभ लेने के लिए इसे त्यागना नहीं चाहते हैं। उनका मानना है कि सामाजिक व्यवस्था में वे वर्षों से शैक्षिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े थे अतः उन्हें समाज में बराबरी पर आने के लिए आरक्षण की आवश्यकता है। जब तक ये जातियाँ इस स्तर को प्राप्त नहीं कर लेती तब तक आरक्षण की यह व्यवस्था बनी रहनी चाहिए। आरक्षण का विरोध करने वाले आरक्षण की व्यवस्था का जाति के आधार पर आधारित होने के कारण विरोध कर रहे है। उनका कहना है कि आरक्षण जाति के आधार पर न होकर आर्थिक आधार पर होना चाहिए। क्योंकि अगड़ी जातियों में भी बहुत से लोग शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से विपन्न है। अतः आरक्षण जाति आधारित नहीं आर्थिक आधार होना चाहिए। ताकि समाज के सभी वर्गों को आरक्षण का लाभ मिल सके किन्तु राजनीतिक पार्टी निजी स्वार्थ के लिए ऐसा नहीं चाहती हैं। क्योंकि उन्हें अपने वोट बैंक के खिसकने का डर लगा रहता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि वर्तमान भारतीय राजनीति में आरक्षण एक प्रमुख मुद्दा बन गया है जिसे वोट बैक और चुनावी लाभ के लिए उपयोग किया जाता है। इसलिए आरक्षण की राजनीति को डॉ. लोहिया ने अफर्मेटिव ऐक्शन यानी सकारात्मक हस्तक्षेप नाम दिया था। उनका कहना था कि अमेरिका में भी इस तरह की राजनीतिक योजना पर काम किया गया था। सकारात्मक हस्तक्षेप के पुरोधा डॉ. भीमराव अम्बेडकर और डॉ राम मनोहर लोहिया माने जाते हैं। इन नेताओं की सोच को सभी दलों ने अपना रखा है। 2015 में हुए बिहार विधानसभा के चुनाव के दौरान आर. एस. एस. प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि आरक्षण नीति की समीक्षा की जानी चाहिए। लालू प्रसाद यादव और उनके चुनाव के सहयोगी नीतीश कुमार ने मोहन भागवत के इस बयान को इतना बड़ा मुद्दा बना दिया था कि पिछड़ी जातियों की भारी संख्या वाले बिहार में बीजेपी बुरी तरह से चुनाव हार गई थी।

(5) आरक्षण राजनीतिक एवं चुनावी नीति के रूप में - वर्तमान के सभी राजनीतिक दल आरक्षण को एक चुनावी नीति के रूप में प्रयोग करते है। वर्तमान मे देखा जा रहा है किसी भी राष्ट्रीय या राज्य चुनावों में सभी राजनीतिक दल आरक्षण को एक नीति (कार्यक्रम) के रूप में अपनाते हैं तथा अपने चुनाव घोषणा पत्र में आरक्षण की व्यवस्था बनाए रखने या आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाने तथा नई जातियों को आरक्षण का लाभ देने का वादा करते रहते हैं जबकि सर्वोच्च न्यायालय का स्पष्ट आदेश है कि केन्द्र और राज्यों में आरक्षण कोटा 50% से अधिक नहीं होना चाहिए। फिर भी तमिलनाडू, गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान राज्यों में आरक्षण 60%, 74%, 58% तक है। राजस्थान सरकार ने गुर्जरों को आरक्षण का लाभ देने के लिए अतिरिक्त कोटा में 5 प्रतिशत आरक्षण दिया है और एक अलग विधेयक में 14% आरक्षण दिया है। आर्थिक पिछड़ा वर्ग को, लेकिन राज्य ने सुप्रीम कोर्ट के द्वारा तय सीमा 50% से बढ़कर अब नए विधेयक के अनुसार 68% हो गया है। तात्पर्य यह है कोटा सुप्रीम कोर्ट की सीमा को लांघ गया है। ऐसा ही कर्नाटक ओडिशा और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में भी आरक्षण 50% से ज्यादा है।

(6) जाति आधारित राजनीतिक दलों का उदय - आरक्षण की व्यवस्था जाति पर आधारित होने के कारण उसके आधार पर अनेक राजनीतिक दलों का उदय हुआ है। आरक्षण और जाति के राजनीतिकरण के सन्दर्भ में सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि दलित राजनीति किस हद तक सामाजिक बदलाव के लिए पर्याप्त कार्यावली ला रही है। प्रताप भानु मेहता के अनुसार पिछले दशकों में जाति पर आधारित राजनीतिक सत्ता के लोभ में अपने मूल उद्देश्यों से भटक चुकी है। इस संदर्भ में बहुजन समाजवादी पार्टी (BSP) तथा राष्ट्रीय जनता दल (RJD) पर चर्चा आवश्यक है। पिछड़ी जाति की राजनीति का सबसे प्रमुख पहलू सत्ता तथा शक्ति की खोज है। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी का उदय हुआ तथा 1995 एवं 1997 में इस दल ने सरकार बनाई। कुछ हद तक कांग्रेस से जाने से बना निर्वात इसका कारण था किन्तु बसपा की दलित समर्थक नीतियाँ भी महत्वपूर्ण थीं। 1978 में कांशीराम ने बैकवर्ड एण्ड माईनोरिटी क्लासेज एम्प्लोथीज फेडरेशन (बामसेफ) की स्थापना की। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य बहुजन समाज के अभिजात वर्ग को संगठित करना था। बसपा का गठन 1984 में बामसेफ के प्रमुख विचारकों ने ही किया। बसपा का आरम्भिक प्रयास अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, मुसलमान तथा ईसाइयों का गठबन्धन बनाने का था। इस प्रयास में विफल बसपा का जनाधार आज वे राजनीतिकृत दलित है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- सन 1909 ई. अधिनियम पारित होने के कारण बताइये।
  2. प्रश्न- भारत सरकार अधिनियम, (1909 ई.) के प्रमुख प्रावधानों का उल्लेख कीजिए।
  3. प्रश्न- भारत सरकार अधिनियम, 1909 ई. के मुख्य दोषों पर प्रकाश डालिए।
  4. प्रश्न- 1935 के भारत सरकार अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  5. प्रश्न- भारत सरकार अधिनियम, 1935 ई. का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
  6. प्रश्न- 'भारत के प्रजातन्त्रीकरण में 1935 ई. के अधिनियम ने एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। क्या आप इस कथन से सहमत हैं?
  7. प्रश्न- भारत सरकार अधिनियम, 1919 ई. के प्रमुख प्रावधानों पर प्रकाश डालिए।
  8. प्रश्न- सन् 1995 ई. के अधिनियम के अन्तर्गत गर्वनरों की स्थिति व अधिकारों का परीक्षण कीजिए।
  9. प्रश्न- माण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार (1919 ई.) के प्रमुख गुणों का वर्णन कीजिए।
  10. प्रश्न- लोकतंत्र के आयाम से आप क्या समझते हैं? लोकतंत्र के सामाजिक आयामों पर प्रकाश डालिए।
  11. प्रश्न- लोकतंत्र के राजनीतिक आयामों का वर्णन कीजिये।
  12. प्रश्न- भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को आकार देने वाले कारकों पर प्रकाश डालिये।
  13. प्रश्न- भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को आकार देने वाले संवैधानिक कारकों पर प्रकाश डालिये।
  14. प्रश्न- संघवाद (Federalism) से आप क्या समझते हैं? क्या भारतीय संविधान का स्वरूप संघात्मक है? यदि हाँ तो उसके लक्षण क्या-क्या हैं?
  15. प्रश्न- भारतीय संविधान संघीय व्यवस्था स्थापित करता है। संक्षेप में बताएँ।
  16. प्रश्न- संघवाद से आप क्या समझते हैं? संघवाद की पूर्व शर्तें क्या हैं? भारत के सन्दर्भ में संघवाद की उभरती हुई प्रवृत्तियों की चर्चा कीजिए।
  17. प्रश्न- भारत के संघवाद को कठोर ढाँचे में नही ढाला गया है" व्याख्या कीजिए।
  18. प्रश्न- राज्यों द्वारा स्वयत्तता (Autonomy) की माँग से आप क्या समझते हैं?
  19. प्रश्न- क्या भारत को एक सच्चा संघ (True Federation) कहा जा सकता है?
  20. प्रश्न- संघीय व्यवस्था में केन्द्र शक्तिशाली है क्यों?
  21. प्रश्न- क्या भारतीय संघीय व्यवस्था में गठबन्धन की सरकारें अपरिहार्य हैं? चर्चा कीजिए।
  22. प्रश्न- क्या क्षेत्रीय राजनीतिक दल भारतीय संघीय व्यवस्था के लिए संकट है? चर्चा कीजिए।
  23. प्रश्न- केन्द्रीय सरकार के गठन में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की भूमिका की विवेचना कीजिए।
  24. प्रश्न- भारत में गठबन्धन सरकार की राजनीति क्या है? गठबन्धन धर्म से क्या तात्पर्य है?
  25. प्रश्न- भारत के प्रमुख राजनीतिक दलों के विषय में संक्षिप्त जानकारी दीजिए।
  26. प्रश्न- राजनीतिक दलों का वर्गीकरण करें। दलीय पद्धति कितने प्रकार की होती है? गुण-दोषों के आधार पर विवेचना कीजिए।
  27. प्रश्न- दलीय पद्धति के लाभ व हानियाँ क्या हैं?
  28. प्रश्न- भारतीय दलीय व्यवस्था में पिछले 60 वर्षों में आए परिवर्तनों के कारणों की चर्चा कीजिए।
  29. प्रश्न- आर्थिक उदारवाद के इस युग में भारत में गठबंधन की राजनीति के भविष्य की आलोचनात्मक चर्चा कीजिए।
  30. प्रश्न- दलीय प्रणाली (Party System) में क्या दोष पाये जाते हैं?
  31. प्रश्न- दबाव समूह व राजनीतिक दलों में क्या-क्या अन्तर है?
  32. प्रश्न- भारत में क्षेत्रीय दलों के उदय एवं विकास के लिए उत्तरदायी तत्व कौन से हैं?
  33. प्रश्न- 'गठबन्धन धर्म' से क्या तात्पर्य है? क्या यह नियमों एवं सिद्धान्तों के साथ समझौता है?
  34. प्रश्न- क्षेत्रीय दलों के अवगुण, टिप्पणी कीजिए।
  35. प्रश्न- सामुदायिक विकास कार्यक्रम क्या है? सामुदायिक विकास कार्यक्रम का क्या उद्देश्य है?
  36. प्रश्न- 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
  37. प्रश्न- पंचायती राज से आप क्या समझते हैं? ग्रामीण पुननिर्माण में पंचायतों के कार्यों एवं महत्व को बताइये।
  38. प्रश्न- भारतीय ग्राम पंचायतों के दोषों की विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- ग्राम पंचायतों का ग्रामीण समाज में क्या महत्व है?
  40. प्रश्न- क्षेत्र पंचायत के संगठन तथा कार्यों का वर्णन कीजिए।
  41. प्रश्न- जिला पंचायत का संगठन तथा ग्रामीण समाज में इसकी भूमिका की विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- भारत में स्थानीय शासन के सम्बन्ध में 'पंचायत राज' के सिद्धान्त व व्यवहार की आलोचना कीजिए।
  43. प्रश्न- नगरपालिका क्या है? तथा नगरपालिका के कार्यों का वर्णन कीजिए।
  44. प्रश्न- नगरीय स्वायत्त शासन की विवेचना कीजिए।
  45. प्रश्न- ग्राम सभा के प्रमुख कार्य बताइये।
  46. प्रश्न- ग्राम पंचायत की आय के प्रमुख साधन बताइये।
  47. प्रश्न- पंचायती व्यवस्था के चार उद्देश्य बताइये।
  48. प्रश्न- ग्राम पंचायत के चार अधिकार बताइये।
  49. प्रश्न- न्याय पंचायत का गठन किस प्रकार किया जाता है?
  50. प्रश्न- ग्राम पंचायत से आप क्या समझते तथा ग्राम सभा तथा ग्राम पंचायत में क्या अन्तर है?
  51. प्रश्न- ग्राम पंचायत की उन्नति के लिए सुझाव दीजिए।
  52. प्रश्न- ग्रामीण समुदाय पर पंचायत के प्रभाव का वर्णन कीजिए।
  53. प्रश्न- भारत में पंचायत राज संस्थाएँ बताइये।
  54. प्रश्न- क्षेत्र पंचायत का ग्रामीण समाज में क्या महत्व है?
  55. प्रश्न- ग्राम पंचायत के महत्व को बढ़ाने के लिए सरकार के द्वारा क्या प्रयास किये गये हैं?
  56. प्रश्न- नगर निगम के संगठनात्मक संरचना का वर्णन कीजिए।
  57. प्रश्न- नगर निगम के भूमिका एवं कार्यों का वर्णन कीजिए।
  58. प्रश्न- नगरीय स्वशासन संस्थाओं की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  59. प्रश्न- नगरीय निकायों की संरचना पर टिप्पणी लिखिए।
  60. प्रश्न- नगर पंचायत पर टिप्पणी लिखिए।
  61. प्रश्न- दबाव व हित समूह में अन्तर स्पष्ट कीजिये।
  62. प्रश्न- दबाव समूह से आप क्या समझते हैं? दबाव समूहों के क्या लक्षण हैं? दबाव समूहों द्वारा अपनाई जाने वाली कार्यप्रणाली के विषय में बतायें।
  63. प्रश्न- दबाव समूह अपने हित पूरा करने के लिए किस प्रकार कार्य करते हैं?
  64. प्रश्न- दबाव समूहों के महत्व पर प्रकाश डालिये।
  65. प्रश्न- भारत के प्रमुख राजनीतिक दलों के विषय में संक्षिप्त जानकारी दीजिए।
  66. प्रश्न- दबाव समूह किसे कहते हैं? दबाव समूह के कार्यों को लिखिए। भारत की राजनीति में दबाव समूहों की भूमिका की चर्चा कीजिए।
  67. प्रश्न- मतदान व्यवहार क्या है? मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाले तत्वों की विवेचना कीजिए।
  68. प्रश्न- दबाव समूह व राजनीतिक दलों में क्या-क्या अन्तर है?
  69. प्रश्न- दबाव समूहों के दोषों का वर्णन करें।
  70. प्रश्न- भारत में श्रमिक संघों की विशेषताएँ। टिप्पणी कीजिए।
  71. प्रश्न- भारत में निर्वाचन पद्धति के दोषों को स्पष्ट कीजिए।
  72. प्रश्न- भारत में निर्वाचन पद्धति के दोषों को दूर करने के सुझाव दीजिए।
  73. प्रश्न- जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1996 के अंतर्गत चुनाव सुधार के संदर्भ में किये गये प्रावधानों का वर्णन कीजिए।
  74. प्रश्न- क्या निर्वाचन आयोग एक निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र संस्था है? स्पष्ट कीजिए।
  75. प्रश्न- चुनाव सुधारों में बाधाओं पर टिप्पणी कीजिए।
  76. प्रश्न- मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाले तत्व बताइये।
  77. प्रश्न- चुनाव सुधार पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
  78. प्रश्न- अलगाव से आप क्या समझते हैं? अलगाववाद के कारण क्या हैं?
  79. प्रश्न- भारतीय राजनीति में धर्म की भूमिका पर प्रकाश डालिए।
  80. प्रश्न- धर्मनिरपेक्षता से आप क्या समझते हैं? धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक पक्ष को स्पष्ट कीजिए।
  81. प्रश्न- सकारात्मक राजनीतिक कार्यवाही से क्या आशय है? इसके लिए भारतीय संविधान में क्या प्रावधान किए गए हैं?
  82. प्रश्न- जाति को परिभाषित कीजिए। भारतीय राजनीति पर जातिगत प्रभाव का अध्ययन कीजिए। जाति के राजनीतिकरण की विवेचना भी कीजिए।
  83. प्रश्न- निर्णय प्रक्रिया में राजनीतिक दलों में जाति की क्या भूमिका है?
  84. प्रश्न- राज्यों की राजनीति को जाति ने किस प्रकार प्रभावित किया है?
  85. प्रश्न- क्षेत्रीयतावाद (Regionalism) से क्या अभिप्राय है? इसने भारतीय राजनीति को किस प्रकार प्रभावित किया है? क्षेत्रवाद के उदय के क्या कारण हैं?
  86. प्रश्न- भारतीय राजनीति पर क्षेत्रवाद के प्रभावों का अध्ययन कीजिए।
  87. प्रश्न- क्षेत्रवाद के उदय के लिए कौन-से तत्व जिम्मेदार हैं?
  88. प्रश्न- भारत में भाषा और राजनीति के सम्बन्धों पर प्रकाश डालिये।
  89. प्रश्न- उर्दू और हिन्दी भाषा को लेकर भारतीय राज्यों में क्या विवाद है? संक्षेप में चर्चा कीजिए।
  90. प्रश्न- भाषा की समस्या हल करने के सुझाव दीजिए।
  91. प्रश्न- साम्प्रदायिकता से आप क्या समझते हैं? साम्प्रदायिकता के उदय के कारण और इसके दुष्परिणामों की चर्चा करते हुए इसको दूर करने के सुझाव बताइये। भारतीय राजनीति पर साम्प्रदायिकता का क्या प्रभाव पड़ा? समझाइये।
  92. प्रश्न- साम्प्रदायिकता के उदय के पीछे क्या कारण हैं?
  93. प्रश्न- साम्प्रदायिकता के दुष्परिणामों की चर्चा कीजिए।
  94. प्रश्न- साम्प्रदायिकता को दूर करने के सुझाव दीजिये।
  95. प्रश्न- भारतीय राजनीति पर साम्प्रदायिकता के प्रभाव का विश्लेषण कीजिए।
  96. प्रश्न- जाति व धर्म की राजनीति भारत में चुनावी राजनीति को कैसे प्रभावित करती है। क्या यह सकारात्मक प्रवृत्ति है या नकारात्मक?
  97. प्रश्न- "वर्तमान भारतीय राजनीति में धर्म, जाति तथा आरक्षण प्रधान कारक बन गये हैं।" इस पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कीजिए।
  98. प्रश्न- 'जातिवाद' और सम्प्रदायवाद प्रजातंत्र के दो बड़े शत्रु हैं। टिप्पणी करें।
  99. प्रश्न- उत्तर प्रदेश के बँटवारे की राजनीति को समझाइए।
  100. प्रश्न- जन राजनीतिक संस्कृति के विकास के कारण का वर्णन कीजिए।
  101. प्रश्न- 'भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका' संक्षिप्त मूल्यांकन कीजिए।
  102. प्रश्न- चुनावी राजनीति में भावनात्मक मुद्दे पर प्रकाश डालिए।
  103. प्रश्न- भ्रष्टाचार से क्या अभिप्राय है? भ्रष्टाचार की समस्या के लिए कौन से कारण उत्तरदायी हैं? इस समस्या के समाधान के लिए उपाय बताइए।
  104. प्रश्न- भ्रष्टाचार के लिए कौन-कौन से कारण उत्तरदायी हैं?
  105. प्रश्न- भ्रष्टाचार उन्मूलन के कौन-कौन से उपाय हैं?
  106. प्रश्न- भारत में राजनैतिक, व्यापारिक-औद्योगिक तथा धार्मिक क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार की विवेचना कीजिए।
  107. प्रश्न- भ्रष्टाचार क्या है? भारत के आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, व्यापारिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार का वर्णन कीजिए।
  108. प्रश्न- भारत के आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, व्यापारिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार का वर्णन कीजिए।
  109. प्रश्न- भ्रष्टाचार के प्रभावों की विवेचना कीजिए।
  110. प्रश्न- सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार की रोकथाम के सुझाव दीजिये।
  111. प्रश्न- भ्रष्टाचार से आप क्या समझते हैं? इसके प्रकारों का वर्णन कीजिए।
  112. प्रश्न- भ्रष्टाचार की विशेषताओं को बताइए।
  113. प्रश्न- लोक जीवन में भ्रष्टाचार के कारण बताइये।
  114. प्रश्न- राष्ट्रपति शासन क्या है? यह किन परिस्थितियों में लागू होता है? राष्ट्रपति शासन लगने से क्या परिवर्तन होता है?
  115. प्रश्न- दल-बदल की समस्या (भारतीय राजनैतिक दलों में)।
  116. प्रश्न- राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री के सम्बन्धों पर वैधानिक व राजनीतिक दृष्टिकोण क्या है? उनके सम्बन्धों के निर्धारक तत्व कौन-से हैं?
  117. प्रश्न- दल-बदल कानून (Anti Defection Law) पर टिप्पणी कीजिए।
  118. प्रश्न- संविधान के क्रियाकलापों पर पुनर्विलोकन हेतु स्थापित राष्ट्रीय आयोग (2002) की दलबदल नियम पद संस्तुति, टिप्पणी कीजिए।

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